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स मा॑त॒रिश्वा॑ पुरु॒वार॑पुष्टिर्वि॒दद्गा॒तुं तन॑याय स्व॒र्वित्। वि॒शां गो॒पा ज॑नि॒ता रोद॑स्योर्दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa mātariśvā puruvārapuṣṭir vidad gātuṁ tanayāya svarvit | viśāṁ gopā janitā rodasyor devā agniṁ dhārayan draviṇodām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। मा॒त॒रिश्वा॑। पु॒रु॒वार॑ऽपुष्टिः। वि॒दत्। गा॒तुम्। तन॑याय। स्वः॒ऽवित्। वि॒शाम्। गो॒पाः। ज॒नि॒ता। रोद॑स्योः। दे॒वाः। अ॒ग्निम्। धा॒र॒य॒न्। द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥ १.९६.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:96» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जिस ईश्वर ने (तनयाय) अपने पुत्र के समान जीव के लिये (स्वर्वित्) सुख को पहुँचानेहारी (गातुम्) वाणी को (विदत्) प्राप्त कराया, (पुरुवारपुष्टिः) जिससे अत्यन्त समस्त व्यवहार के स्वीकार करने की पुष्टि होती है, वह (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोने और बाहर-भीतर रहनेवाला पवन बनाया है, जो (विशाम्) प्रजाजनों का (गोपाः) पालने और (रोदस्योः) उजेले-अन्धेरे को वर्त्तानेहारे लोकसमूहों का (जनिता) उत्पन्न करनेवाला है, जिस (द्रविणोदाम्) धन देनेवाले के तुल्य (अग्निम्) जगदीश्वर को (देवाः) उक्त विद्वान् जन (धारयन्) धारण करते वा कराते हैं (सः) वह सब दिन इष्टदेव मानने योग्य है ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पवन के निमित्त के विना किसी की वाणी प्रवृत्त नहीं हो सकती, न किसी की पुष्टि होने के योग्य और न ईश्वर के विना इस जगत् की उत्पत्ति और रक्षा के होने की संभावना है ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

मनुष्यैर्येनेश्वरेण तनयाय स्वर्विद्गातुं विदद् पुरुवारपुष्टिर्मातरिश्वा बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुर्निर्मितो यो विशां गोपा रोदस्योर्जनिताऽस्ति यं द्रविणोदामिवाग्निं देवा धारयन् स सर्वदेष्टदेवो मन्तव्यः ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (मातरिश्वा) मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति स वायुः (पुरुवारपुष्टिः) पुरु बहु वारा वरणीया पुष्टिर्यस्मात् सः (विदत्) लम्भयन् (गातुम्) वाचम् (तनयाय) पुत्राय (स्वर्वित्) सुखप्रापकः (विशाम्) प्रजानाम् (गोपाः) रक्षकः (जनिता) उत्पादकः (रोदस्योः) प्रकाशाप्रकाशलोकसमूहयोः (देवाः०) इयादि पूर्ववत् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि वायुनिमित्तेन विना कस्यापि वाक् प्रवर्त्तितुं शक्नोति न च कस्यापि पुष्टिर्भवितुं योग्यास्ति। नहीश्वरमन्तरेण जगत उत्पत्तिरक्षणे भवत इति वेद्यम् ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायूशिवाय कोणाचीही वाणी प्रवृत्त होऊ शकत नाही. कोणाची पुष्टी होऊ शकत नाही व ईश्वराशिवाय या जगाची उत्पत्ती व रक्षण होण्याची शक्यता नाही. ॥ ४ ॥